Parvati Mangal Path in Hindi

हिन्दू धर्म में देवी पार्वती को शक्ति और समर्पण की प्रतीक माना जाता है। पार्वती मंगल पाठ, देवी पार्वती की महिमा का वर्णन करने वाला एक महत्वपूर्ण पाठ है, जो न सिर्फ भक्तों को शांति और समृद्धि प्रदान करता है, बल्कि उनके जीवन में मंगलमयी बदलाव भी लाता है। इस ब्लॉग में हम पार्वती मंगल पाठ के महत्व, विधि और इसके पाठ से प्राप्त होने वाले फलों पर चर्चा करेंगे।

पार्वती मंगल पाठ का विशेष महत्व है क्योंकि यह पाठ देवी पार्वती की कृपा प्राप्त करने का एक सशक्त माध्यम है। इसे पढ़ने से:

  1. समृद्धि और खुशहाली: इस पाठ को करने से परिवार में समृद्धि और खुशहाली आती है।
  2. शत्रुओं से रक्षा: यह पाठ शत्रुओं से रक्षा करता है और संकटों को दूर करता है।
  3. विवाह संबंधित समस्याओं का समाधान: अविवाहित लोगों के लिए यह पाठ शीघ्र विवाह के योग बनाता है और विवाहित लोगों के जीवन में सुख और शांति लाता है।
  4. संतान सुख: यह पाठ संतान प्राप्ति के लिए भी अत्यंत लाभकारी है।

पार्वती मंगल पाठ की विधि बहुत ही सरल है, जिसे कोई भी भक्त आसानी से कर सकता है। निम्नलिखित विधि का पालन करें:

  1. साफ-सुथरे स्थान का चयन: सबसे पहले एक साफ-सुथरे स्थान का चयन करें, जहां आपको कोई बाधा न हो।
  2. पूजन सामग्री तैयार करें: देवी पार्वती की मूर्ति या चित्र, फूल, धूप, दीप, फल और नैवेद्य (प्रसाद) तैयार करें।
  3. स्नान करके पवित्र हो जाएं: स्नान करके साफ वस्त्र धारण करें।
  4. दीप प्रज्वलित करें: पूजा स्थान पर दीप प्रज्वलित करें और धूप जलाएं।
  5. पार्वती मंगल पाठ का संकल्प लें: हाथ में जल लेकर संकल्प लें कि आप विधिपूर्वक पार्वती मंगल पाठ करेंगे।
  6. पार्वती मंगल पाठ का पाठ करें: श्रद्धा और भक्ति भाव से पार्वती मंगल पाठ का पाठ करें।
  7. आरती और प्रसाद वितरण: पाठ समाप्त होने के बाद देवी पार्वती की आरती करें और प्रसाद का वितरण करें।

अर्थ

गुरु की, गुणी लोगों अर्थात विज्ञजनों की, पर्वतराज हिमालय की और गणेश जी की वन्दना करके फिर जानकी जी की और भाथेसहित धनुष धारण करने वाले श्रीरामचन्द्र जी को स्मरण कर श्रीपार्वती और कैलासपति महादेव जी के मनोहर, पापनाशक, अन्तःकरण को पवित्र करने वाले और मुनियों के भी मन को रुचिकर लगने वाले विवाह का गान करता हूँ.

अर्थ

मैं काव्य की शैलियों को नहीं जानता और न कवि ही कहलाता हूँ, मैं तो केवल शिवजी के चरित्ररुपी श्रेष्ठ नदी में मन को स्नान कराता हूँ. और उसी श्रीशंकर एवं पार्वती-चरित्र का गान करके दूसरों की निंदा और वाद-विवाद से मलिन हुई वाणी को पवित्र करता हूँ.

अर्थ

जय नामक संवत के फाल्गुन मास की शुक्ला पंचमी बृहस्पतिवार को अश्विनी नक्षत्र में मैंने इस मंगल विवाह-प्रसंग की रचना की है, जिसे सुनकर क्षण-क्षण में सुख प्राप्त होता है.

अर्थ

पर्वतों में शीर्षस्थानीय गुणों की खान हिमवान पर्वत धन्य हैं, जिनके घर में त्रिलोकी की स्त्रियों में श्रेष्ठ मैना नाम की पत्नी थी. कहो ! उनके पुण्य की किस प्रकार बड़ाई की जाय, जिनके घर में जगत के माता पार्वती ने जन्म लिया. जब से मंगलों की खान पार्वती प्रकट हुईं तभी से हिमाचल के घर में नित्य नवीन रिद्धि-सिद्धियाँ और संपत्तियाँ निवास करने लगीं.

अर्थ

मुनिजन सब प्रकार के नित्य नवीन मंगल और आनंदमय उत्सव मनाते हैं. ब्रह्मादि देवता, मनुष्य एवं नाग अत्यंत प्रेम से हिमवान के सौभाग्य का वर्णन करते हैं. पिता, माता, प्रियजन और कुटुंब के लोग उन्हें निहारकर आनंदित होते हैं और उनका प्रेम से लालन-पालन करते हैं. ऐसा लगता था, मानो शुक्ल पक्ष में चंद्रशेखर भगवान् महादेव जी के ललाट में चन्द्रमा की कला वृद्धि को प्राप्त हो रही हो.

अर्थ

कुमारी पार्वती जी को सयानी हुई देख माता-पिता चिंतित हो रहे हैं और नित्यप्रति यह अभिलाषा करते हैं कि पार्वती के योग्य वर मिले. एक समय नारद जी हिमवान के घर गए. उस समय पर्वतश्रेष्ठ हिमवान और मैना ने प्रसन्नतापूर्वक उनकी पूजा की.

अर्थ  

माता (मैना) ने पार्वती को बुलाकर ऋषि के चरणों में डाल दिया. मुनि नारद ने मन ही मन पार्वती जी को प्रणाम किया और वचन से आशीर्वाद दिया. उस समय पिता हिमवान के कंधे से सटकर खड़ी हुई कुमारी पार्वती जी बड़ी शोभामयी जान पड़ती थी. उनके स्वरुप का कोई वर्णन नहीं कर सकता. उसे जिसने देखा वही जान सकता है.

अर्थ

अत्यंत प्रेम और सच्ची श्रद्धा से बार-बार पैरों पड़कर मैना ने कोमल वचनों से कहा – “हे मुने ! हमारी विनती सुनिए. आप तीनों लोकों में और तीनों कालों में बड़े ही विचार-कुशल है, अतः हे नारदजी ! आप पार्वती के अनुरूप कोई वर बतलाइए”.

अर्थ

नारद मुनि कहते हैं कि “ब्रह्माण्ड के चौदहों भुवनों में जहाँ-जहाँ मैं घूमता हूँ, हे गिरिश्रेष्ठ हिमवान ! वहाँ-वहाँ तुम्हारी बड़ाई सुनी जाती है. तुम्हारे समान बड़भागी कहीं कोई नहीं है. तुम्हारे लिए कुछ भी अप्राप्य नहीं है, सब कुछ सुलभ है क्योंकि विधाता तुम्हारे अनुकूल सिद्ध हुए हैं”.

अर्थ

“ईश्वर तुम्हारे अनुकूल सिद्ध हुए हैं अतः तुम्हारे लिए सब कुछ सुलभ है” – यह जानकर नवीन चिंताओं को त्याग दो. ब्रह्माजी ने वर रूप पौधे को पहले रचा है और तब मंगलमयी मंगला को. तुम्हारी चर्चा ब्रह्मलोक में भी चल रही थी, उस समय चतुर चतुरानन ने कहा था कि “हिमवान की कन्या (पार्वती) के योग्य वर है तो बावला, परन्तु निश्चय ही वह देवताओं से भी वन्दित (पूजित) हैं”.

अर्थ

“मेरे मन में भी ऐसी ही बात आती है कि पार्वती को बावला वर मिलेगा”. नारदजी के इस वचन को सुनकर उमा (पार्वती) के ह्रदय में सुख हुआ. किन्तु यह बात दंपत्ति – हिमवान व मैना – सहम गए और नारदजी के पैरों में पड़कर कहने लगे कि “पार्वती के लिए हम लोगों का जीवन और सारी सुख-संपत्ति है”.

अर्थ

“अतः हे नाथ ! वह उपाय बतलाइए, जिससे पार्वती के इस भाग्य-दोष का नाश हो, जिसके कारण उसे पागल पति मिलने को है”. मुनि ने कहा कि सारे दोषों का नाश करने वाले शशिभूषण महादेव जी ही हैं. उनकी कृपा से सफलता अवश्य प्राप्त होगी. साहस दृढ़ता से ही श्रेष्ठ साधन भी सफल होता है. शिवजी की आराधना एक ही करोडो कल्पवृक्षों के समान “सिद्धिदायक” है.

अर्थ

“देखो, तुम्हारे आश्रम कैलास में महादेव जी अभी तप-साधन कर रहे हैं, अतः पार्वती से कहो कि जाकर मनोयोगपूर्वक शिवजी की आराधना करें”. दंपत्ति (हिमवान-मैना) को यह उपाय बतलाकर मुनिश्रेष्ठ नारदजी आनंदपूर्वक चले गए और माता-पिता ने अत्यंत स्नेह से पार्वती जी को शिक्षा दी.

अर्थ

पर्वतराज हिमाचल ने तपस्या की सारी सामग्री सजाकर पार्वती जी को दे दी. माता कहने लगी कि ईश्वर स्त्रियों को न रचे क्योंकि इन्हें सदैव पराधीन रहना पड़ता है. माता-पिता ने पार्वतीजी को उपदेश दिया कि तुम शिवजी की आराधना करो और अत्यंत आदर, प्रेम और भक्ति से मन को तर कर दो.

अर्थ

“भक्ति के द्वारा मन को सरस बना दो”. मनसा-वाचा-कर्मणा पार्वती के एकमात्र श्रीमहादेव जी के चरणों का आश्रय था. उनके गौरव, स्नेह, शील-संकोच और सेवा का वर्णन किस प्रकार किया जा सकता है. पार्वती जी गुण, रूप एवं यौवन की सीमा थीं, किन्तु ऐसी अनुपम सुंदरी को देखकर शिवजी के मन में तनिक भी क्षोभ नहीं हुआ. सच है जो लोग विकार का कारण रहते हुए भी कामदेव को वश में किए रहते हैं, वे ही सच्चे धीर हैं.

अर्थ

देवताओं ने अनुकूल अवसर देखकर कामदेव को बुलाया और कहा कि “आप देवताओं का काम कीजिए”. यह सुनकर कामदेव साज सजाकर आया. महादेवजी से कामदेव ने प्रतिकूल बर्ताव किया और जगत को जीत लेने के अभिमान से चूर होकर शिवजी का निरादर किया. उसी का फल उसने पाया अर्थात वह नष्ट हो गया.

अर्थ

पतिहीना (विधवा) रति को मलिन और शोकाकुल देखकर मृदुल स्वभाव, कृपामूर्ति आशुतोष भगवान् नीलकंठ (शिवजी) ने प्रसन्न होकर उसे यह वर दिया –

अर्थ

पार्वती जी प्रेमवश व्याकुल हो गईं, उनके शरीर की सुध-बुध जाती रही, मानो वन में बढ़ती हुई कल्पता को विषम पाले ने मार दिया हो. फिर सखियों ने घर-घर जाकर सारे समाचार सुनाए और इस समाचार को सुनकर माता-पिता एवं घर के लोग दारुण दुःख में जलने लगे.

अर्थ

वहाँ जाकर पार्वती को देख वे अत्यंत प्रेम से उन्हें हृदय लगाते हैं, विलाप करते हैं तथा वाम विधाता को दोष देते हैं. वे कहते हैं कि यदि देवता और विधाता शुभ मार्ग में बाधक न हों तो साधक लोग परिश्रम करके मनोवांछित फल पा सकते हैं.

अर्थ

सब लोग साधकों के क्लेश सुनाकर पार्वती जी को घर चलने के लिए निहोरा करते हैं पर उनकी बात कौन सुनता है और किसे घर सुहाता है? मन तो चंद्रभूषण श्रीमहादेवजी को चाहता है फिर पार्वती जी सबको समझाकर सबके मन को दृढ कर और माता-पिता की आज्ञा पा पुनः कठिन तपस्या करने लगीं, उसे तुलसी, गाकर कैसे कह सकता है.

अर्थ

पार्वती जी की दृढ प्रतिज्ञा को देखकर माता-पिता और परिजन लौट आए. जिसमें अनुरागपूर्वक चित्त लग जाता है, वही अपना प्रिय है. उन्होंने भोगों को रोग के समान और लोगों को सर्पों के झुण्ड के समान त्याग दिया तथा जो मुनियों को भी मन के द्वारा अगम्य था, ऐसे तप में मन लगा दिया.

अर्थ

जिस शरीर को स्पर्श करने में वस्त्र-आभूषण भी सकुचाते थे, उसी शरीर से उन्होंने शिवजी के लिए बड़ी भारी तपस्या आरम्भ कर दी. वे तीनों काल स्नान करती हैं और शिवजी की पूजा करती हैं. उनके प्रेम, व्रत और नियम को सज्जन साधु लोग भी सराहते हैं.

अर्थ

उनके लिए दिन-रात बराबर हो गए हैं, न नींद है न भूख अथवा न प्यास ही है. नेत्रों में आँसू भरे रहते हैं, मुख से शिव-नाम उच्चारण होता रहता है, शरीर पुलकित रहता है और ह्रदय में शिवजी बसे रहते हैं. कभी कंद, मूल, फल का भोजन होता है, कभी जल और वायु पर ही निर्वाह होता है और कभी बेल के सूखे पत्ते खाकर ही दिन बिता दिए जाते हैं.

अर्थ

जब पार्वती जी ने सूखे पत्तों को भी त्याग दिया तब उनका नाम “अपर्णा” पड़ा. उनकी नवीन, निर्मल एवं मनोरम कीर्ति से चौदहों भुवन भर गए. पार्वती जी का तप देखकर बहुत-से मुनिवर और मुनिजन उनकी सराहना करते हैं कि ऐसा तप कभी कहीं किसी ने न देखा और न तो सुना ही था.

अर्थ

वे कहते हैं कि ऐसा तप किसी ने नहीं देखा. इस तप के योग्य फल क्या चार फल अर्थात अर्थ, धर्म, काम एवं मोक्ष कभी हो सकते हैं? पर्वतराजकुमारी उमा क्या चाहती हैं, जाना नहीं जाता और न वे कुछ कहती ही हैं. तब शशिशेखर श्रीमहादेव जी ब्रह्मचारी का वेश बना उनके प्रेम, कठोर नियम, प्रतिज्ञा और दृढ संकल्प की परीक्षा करने के लिए गए. उन्होंने मन ही मन अपने को पार्वती जी के हाथों में सौंप दिया और पार्वती जी से समधुर वचन कहने लगे.

अर्थ

उस समय पार्वती जी की दशा देखकर दयानिधान शिवजी दुखी हो गए और उनके ह्रदय में यह आया कि मेरा स्वभाव बड़ा ही कठोर है. यही कारण है कि मेरी प्रसन्नता के लिए साधकों को इतना तप करना पड़ता है. तब वह ब्रह्मचारी पार्वती जी के वंश की प्रशंसा करके और उनके माता-पिता को सब प्रकार से योग्य कह अमृत के समान मीठे और सुखदायक वचन बोला.

अर्थ

शिवजी ने कहा – “हे देवि ! मैं कुछ विनती करता हूँ, बुरा न मानना. मैं स्वाभाविक स्नेह से कहता हूँ, अपने जी में इसे सत्य जानना. तुमने संसार में प्रकट होकर अपने माता-पिता का यश प्रसिद्द कर दिया. तुम संसार समुद्र में स्त्रियों के बीच रत्न-सदृश उत्पन्न हुई हो”.

अर्थ

“मुझे ऐसा जान पड़ता है कि संसार में तुम्हारे लिए कुछ भी अप्राप्य नहीं है. यह भी सच है कि निष्काम तपस्या में क्लेश नहीं जान पड़ता. परन्तु यदि तुम वर के लिए तप करती हो तो यह तुम्हारा लड़कपन है, क्योंकि यदि घर में पारसमणि मिल जाए तो क्या कोई सुमेरु पर जाएगा?

अर्थ

“हमारी समझ से तो तुम बिना प्रयोजन ही क्लेश उठाती हो. अमृत क्या रोगी को चाहता है और रत्न क्या राजा की कामना करता है?” इस ब्रह्मचारी को आपके तप का कोई कारण समझ नहीं आया, यह सोचते-सोचते अपने ह्रदय में हार गया है, इस प्रकार उसके प्रिय वचन सुनकर पार्वती ने सखी के मुख की ओर देखा.

अर्थ

पार्वती जी ने सखी के मुख की ओर देखा तब सखी ने उनकी अनुमति जानकर उनके तप का कारण यह बतलाया कि वे शिवजी के लिए तपस्या करती हैं. यह सुनकर ब्रह्मचारी ने हँसकर कहा कि “यह तो तुम्हारी महान मूर्खता है”. जिसने तुम्हें ऐसा उपदेश दिया है कि जिसके कारण तुमने इतना क्लेश उठाकर बावले वर का वरण किया है, मैं तुम्हारी भलाई के लिए सद्भाववश कहता हूँ कि वह तुम्हारा घोर शत्रु है.

अर्थ

“अच्छा यह तो बताओ कि क्या सुनकर तुम ऐसे कुलहीन वर पर रीझ गई, जो गुणरहित, प्रतिष्ठा रहित, जाती रहित और माता-पिता रहित है. वे शिवजी तो भीख माँगकर खाते हैं, नित्य श्मशान में चिता भस्म पर सोते हैं, नग्न होकर नाचते हैं और पिशाच-पिशाचिनी इनके दर्शन किया करते हैं”.

अर्थ

“भाँग-धतूरा ही इनका भोजन है, ये शरीर में राख लपटाये रहते हैं. ये योगी, जटाधारी और क्रोधी हैं, इन्हें भोग अच्छे नहीं लगते”. तुम सुन्दर मुख और सुन्दर नेत्रों वाली हो, किन्तु शिवजी के तो पाँच मुख और तीन आँखें हैं. उनका वामदेव नाम यथार्थ ही है. वे कामदेव के मद को चूर करने वाले अर्थात काम-विजयी हैं.

अर्थ

“शंकर में एक भी श्रेष्ठ गुण नहीं है वरण करोडो दूषण हैं. वे नरमुंड और हाथी के खाल को धारण करने वाले तथा साँप और विषय से विभूषित हैं.” कहाँ तो तुम्हारा गुण, शील और शोभायमान स्वरुप और कहाँ शंकर का अमंगल वेश, जो अत्यंत भयानक है.

अर्थ

“जो शंकर शशि कला की चिन्ता में रहते हैं, वे क्या तुम्हारा ध्यान रखेंगे? मेरे कहे हुए वचनों को हृदय में धारण कर तुम बावले वर को न वरना.” अपने हृदय में विचारकर हठ त्याग दो, हठ करने से तुम दुख ही पाओगी और ब्याह के समय हमारी शिक्षा को याद कर्-कर के पछताओगी.

अर्थ

“जिस समय वे भूत-पिशाच और प्रेतों की बरात सजाकर आएंगे” तब तुम्हें पछताना पडे़गा. उस बरात को यमदूतों की सेना के समान देखकर स्त्री-पुरुष सब भाग चलेंगे. ग्रंथि बन्धन के समय अत्यन्त सुन्दर रेशमी वस्त्र को हाथी के चर्म के साथ जोड़ते हुए सखियाँ मुँह फेरकर हँसेगीं और कोई प्रकट एवं कोई हृदय में ही कहेगी कि अमृत और विष को घोलकर मिलाया जा रहा है.

अर्थ

“जब तुम्हारे साथ शिवजी बैल पर सवार होंगे, तब नगर के स्त्री-पुरुष देखकर हँसते हुए अपने मुख छिपा लेंगे.” इसी प्रकार अनेकों कुतर्क करके ब्रह्मचारी इच्छानुसार बोल रहा था, परंतु पर्वत की पुत्री का मन डिगा नहीं, भला कहीं हवा से पर्वत डोल सकता है?

अर्थ

जो सत्य स्नेह और सच्ची रुचि को फेरना चाहता है, वह तो मानो सावन के महीने में नदी के प्रवाह को समुद्र की ओर सूप से घुमाने की चेष्टा करता है. मणि के बिना सर्प और जल के बिना मछली शरीर त्याग देती है, ऎसे ही जो जिसके साथ प्रेम करता है, वह क्या उसके दोष्-गुण का विचार करता है?

अर्थ

ब्रह्मचारी के कर्ण कटु चाटु वचनों ने पार्वती जी के हृदय में तीर के समान आघात किया. उनकी आँखें लाल हो गई, भृकुटियाँ तन गई और होंठ फड़कने लगे. उनका शरीर थर-थर कांपने लगा. फिर उन्होंने सखी की ओर देखकर कहा – “अरि आली ! इस ब्रह्मचारी को शीघ्र बिदा करो, यह तो बड़ा ही अशिष्ट है.”

अर्थ

फिर ब्रह्मचारी को संबोधित करके कहने लगी – “कहीं कोई चतुर स्त्रियाँ होंगी, वे आपकी शिक्षा सुनेगी, मैं तो बावले के प्रेम में ही अत्यन्त बावली हो गई हूँ”. आपने जो कहा कि महादेवजी दोषनिधान हैं, सो सत्य ही कहा है परंतु विधाता ने जो अंक लिख रखें हैं, उन्हें कौन मिटा सकता है?

अर्थ

“वाद-विवाद करके कौन दु:ख बढ़ाए? कवि किसको मीठा कहते हैं? जिसको जो अच्छा लगता है.” भाव यह है कि जिसको जो अच्छा लगे, उसके लिए वही मीठा है. फिर सखी से बोली – हे सखी ! इनसे कहो बहुत देर हो गई है, अब अपने काम के लिए कहीं जाएँ. देखो, किसी कुयुक्ति को रचकर फिर कुछ न बक उठे.

अर्थ

“ये प्रीति की तो क्या, बात करने की रीति भी नहीं जानते, अतएव कोई विपरीत बात फिर न कहें. शिवजी और साधुओं की निन्दा करने वाले अत्यंत मन्द अर्थात नीच होते हैं, उस निन्दा को जो कोई सुनता है, वह भी बड़ा पापी होता है.” गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि इस वचन को सुन उनका सत्य, दृढ़ और पवित्र प्रेम जानकर करुणासिन्धु श्रीमहादेवजी प्रकट हो गए, उनके ललाट में चंद्रमा शोभायमान हो रहा था.

अर्थ

उनके कमनीय गौर शरीर पर विभूति अत्यन्त शोभित हो रही थी, उनके नेत्र और ललाट विशाल थे तथा मुख मन को मोहित किए लेता था. उनकी मनोहर मूर्ति को निहारकर शैलकुमारी पार्वती जी के नेत्रों में जल भर आया. हृदय में आनन्द छा गया और शरीर पुलकावली से व्याप्त हो गया.

अर्थ

वे बारंबार प्रणाम करने लगी. उनसे कुछ कहते नहीं बनता था. वे मन ही मन विचारती हैं कि मैं स्वप्न देख रही हूँ या सचमुच सामने शिवजी का दर्शन कर रही हूँ. जिस प्रकार जन्म का दरिद्री महामणि पारस को पा जाए और उसके प्रभाव को साक्षात देखते हुए भी उसमें विश्वास न हो, उसी प्रकार यद्यपि पार्वती जी महादेव जी को नेत्रों के सामने देखती हैं तो भी उन्हें प्रतीति नहीं होती.

अर्थ

पार्वती जी का मनोरथ सफल हो गया, इससे वे और भी सुहावनी लगती हैं. जान पड़ता है कि मानो खेलने के लिए वे अभी घर से उठकर आयी हों. उनकी देह में तप का क्लेश और कृशता आदि कुछ भी लक्षित नहीं होता. पार्वती जी के रूप और अनुराग को देखकर महादेव जी उनके वश में हो गए और मानो प्रेमामृत में सानकर वचन बोले.

अर्थ

शिवजी कहते हैं कि “हमको आज तक किसी ने कृतज्ञ नहीं बनाया, परंतु हे पार्वती ! तुमने तो अपने तप और प्रेम से मुझे मोल ले लिया. अब तुम जो कहो, मैं इसी क्षण वही करुँगा, विलंब नहीं होने दूँगा”. शिवजी के ऎसे कोमल वचन सुनकर पार्वती जी पुलकित हो उनके पैरों पर गिर पड़ी.

अर्थ

पार्वती जी ने उनके पैरों पड़कर सखी के द्वारा अपना पिता के अधीन होना सूचित किया, तब शिवजी उनका परितोष करके उनकी प्रीति एवं नीतिनिपुणता का वर्णन करते चले गए. इधर पार्वती जी भी शिवजी को हृदय में धारण कर घर चली गईं. विधाता ने सब कुछ उनके मन के अनुकूल कर दिया. फिर तो आनन्द और प्रेम का समाज जुट गया, मंगलगान होने लगा और बधावा बजने लगा.

अर्थ

तब शिवजी ने सप्तर्षियों (कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, विश्वामित्र, वसिष्ठ, भरद्वाज और गौतम्) को स्मरण किया. उन्होंने आकर शिवजी को सिर नवाया. शिवजी ने उनका सम्मान किया और उन्होंने भी शिवजी का दर्शन करके जन्म का फल पा लिया. सप्तर्षियों ने कहा कि “जो लोग एक बार भी आपका स्मरण कर लेते हैं, वे ही पुण्यात्माओं में श्रेष्ठ हैं.” हे नाथ ! हे हर ! फिर जिसे आप स्मरण करें, उसके समान तो वही है.

अर्थ

मुनियों की विनय सुनकर शिवजी जी ने परम सुख प्राप्त किया और उन मुनीश्वरों को सब कथा का प्रसंग सुनाया. और कहा कि “तुम लोग हिमाचल के घर जाओ और इसकी चर्चा चलाकर यदि जँच जाय तो लग्न धरा आना”.

अर्थ

इसी अवसर आकाशवाणी हुई कि वसिष्ठ पत्नी अरुन्धती मैना से मिलकर बात चलाएंगी. स्त्रियाँ इस काम में कुशल होती हैं, अत: काम बन जाएगा. उमा (पार्वती जी) दुलहन हैं और शिवजी दुलहा हैं. ये मुनि लोग साधक हैं, अत: यह काम अवश्य बन जाएगा.

अर्थ

शिवजी और मुनियों को आकाशवाणी सुनने से आनंद हुआ. सुंदर नेत्रोंवाली स्त्रियाँ सिर पर कलश लिए शुभ शकुन सूचित करती हैं. शिवजी ने महर्षियों को वह दिन और स्थान बतलाया, जहाँ फिर मिलना हो सकता है तब वे मुनिश्रेष्ठ आनन्द होकर गिरिराज हिमवान के पास चलकर पहुँचे.

अर्थ

जब सप्तर्षि हिमवान के घर गए तब हिमवान ने स्नेह एवं आदरपूर्वक पूजकर उनकी पहुनाई की और पत्नी एवं कन्या सहित घर की सारी सामग्री लाकर उनके आगे रख दी. तब पूजा आदि से आनन्दित हो विवाह की बात चली और हिमवान को समझाकर शुभ दिन शोधन करा प्रात:काल ही सातों ऋषि सुन्दर लग्न लिखवाकर आनन्दपूर्वक वहाँ से चले.

अर्थ

हिमवान ने ब्राह्मणों का सम्मान करके कुलगुरु और देवताओं की पूजा की. नगाड़ों पर चोट पड़ने लगी और नगर में चारों ओर उमंग छा गयी. पर्वत, वन, नदी, समुद्र और सरोवर जिन-जिनके विषय में सुना उन सभी को सभी श्रेष्ठ पर्वतों के नायक हिमाचल ने न्योता भेज दिया.

अर्थ

वे सब के सब सुन्दर वेष बना-बनाकर उपहार के लिए चँवर, वस्त्र, हार और मणिगण लिए हृदय में हर्षित हो चले. हिमवान ने प्रमुदित होकर कुशल कारीगरों को मण्डप बनाने की आज्ञा दी और विवाहिता लड़कियाँ मंगल गान करने लगीं.

अर्थ

अनेक प्रकार के बंदनवार, कलश, चँवर और ध्वजा-पताकाएँ बनायी गयीं, बाजार को रेशमी वस्त्रों से छाकर (बीच्-बीच) में फलयुक्त वृक्ष लगाए गये. पार्वती जी के नैहर का कहिए, किस प्रकार वर्णन किया जाए! वह तो मानो वसन्त और कामदेव के राज्य की राजधानी ही थी.

अर्थ

मानो चतुर विधाता ने कामदेव की राजधानी को और ही अलौकिक ढ़ंग से रचा है. उसकी विचित्र रचना को देखकर नेत्र जहाँ जाते हैं, वहीं ठिठककर रह जाते हैं. इस प्रकार विवाह का साज सजाकर हिमवान बरात का रास्ता देखने लगे. गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि मुनियों ने शिवजी को लग्न पत्रिका लेकर दी. इससे शिवजी आनन्दोत्सव में मग्न हो गए.

अर्थ

शिवजी ने तुरंत ही ब्रह्माजी को बुलवाकर जब लग्न पत्रिका पढ़वायी तब उन्होंने कहा कि “सब देवताओं को बुलवाकर विवाह के लिए चलो”. ब्रह्मा ने जहाँ-तहाँ शिवजी के गणों को धावन (दूत) बनाकर भेजा”. यह समाचार सुनकर देवता लोग प्रसन्न हुए और नगाड़े बजाने को कहने लगे.

अर्थ

वे सँवारकर विमानों को सजाने लगे. उस समय अच्छे-अच्छे शकुन होने लगे. इस प्रकार अपने-अपने साज्-समाज को सजाकर देवता लोग चल दिये. शिवजी के समस्त दूत और भूतगण अत्यन्त आनन्दित होकर गरज रहे हैं और सुअर, भैंसे, कुत्ते, गधे आदि अपने-अपने वाहनों को सजाते हैं.  

अर्थ

वे अनेक प्रकार से नाचते हैं और आनन्द की उमंग को और भी बढ़ाते हैं. बकरे, उल्लू, भेड़िए शब्द कर रहे हैं और शिवजी के गण गीत गाते हैं. इसी समय लक्ष्मीपति भगवान विष्णु और देवराज इन्द्र समस्त देवताओं के साथ जहाँ ब्रह्माजी एवं शंकरजी थे, वहाँ आए और उन्हें देखकर अपने मन में बहुत प्रसन्न हुए.

अर्थ

देवराज इन्द्र से मधुर वचन कहकर श्रीमहादेव जी प्रसन्न हो श्रीविष्णु भगवान से मिले और देवताओं की ओर देखकर उन्हें सम्मानित किया. इससे शिवजी को बड़ा आनन्द हुआ. उस समय बहुत प्रकार से वाहन, यान और विमान शोभायमान हो रहे थे. फिर बरात चली और धड़ाधड़ नगाड़े बजने लगे.

अर्थ

आकाश में नगाड़े बजने लगे और गाने का मधुर शब्द होने लगा. शिवजी बैल पर चढ़कर चले. देवता लोग जय-जयकार करने लगे और फूल बरसाने लगे तथा शुभसूचक अच्छे-अच्छे शकुन होने लगे. गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि महादेव जी के साथ भूत, प्रेत, पिशाच – ये ही बरातियों के रूप में शोभायमान हो रहे थे. उस समय वर को गज-चर्म, सर्प और मुण्डमाला से विभूषित देखकर देवता लोग और विष्णु भगवान हँसने लगे.

अर्थ

भगवान ने देवताओं को बुलाकर कहा कि “अब नगर निकट आ गया है, अत: सब लोग अपने-अपने समाज को अलग-अलग कर लो.” इस समय भूतनाथ के साथ भूतगण शोभायमान हैं, जो अनेक प्रकार के मुख, वेष और वाहनों से विराजमान हो रहे हैं.

अर्थ

वे कछुओं के खपड़े को खाल से मँढ़कर उन्हीं को नगाड़ों के रूप में बजाते हैं और मनुष्यों की खोपड़ी में जल भर-भरकर पीते और पिलाते हैं. तब भगवान विष्णु ने हँसकर कहा कि दुलहे के योग्य ही बरात बनी है, यह सुनकर शिवजी हृदय में हँसते हैं. इस प्रकार खूब क्रीड़ा-कौतुक हो रहा है.

अर्थ

मार्ग में बड़ा विनोद हो रहा है, उस समय का आनन्द कुछ कहने में नहीं आता. बरात बाजे बजाती हुई नगर के निकट पहुँच गई. नगर में खलबली पड़ गई और संपूर्ण हिमाचल पर्वत हृदय में आनंदित हो गया, मानो पूर्णिमा के समय चन्द्रमण्डल को देखकर समुद्र उमड़ गया हो.

अर्थ

स्वागत करने वाले प्रसन्न होकर आगे गए परंतु बरात देखकर घबरा गए. उस समय उनसे न तो रहते बनता था और न भागते ही. हाथी, घोड़े भाग चले, वे लौटाने से भी नहीं लौटते, बालक भी घबराहट के मारे भटक गये, वे घर खोजते फिरते हैं.

अर्थ

अगवानों ने बरातियों को जनवासा दिया और सब प्रकार के सुपास (ठहरने के लिए स्थान) की व्यवस्था कर दी, तब सब बालक घर्-घर पहुँचकर कहने लगे – “प्रेत, बेताल और भयंकर भूत बराती हैं तथा बावला वर बैल पर सवार है. इस प्रकार सभी बानक दुलहे के योग्य ही बना है अर्थात सारा साज्-समाज ही विपरीत है.

अर्थ

“हम सत्य कहते हैं – ईश्वर कुशल करें, जो जीते बच गए तो करोड़ों ब्याह देखेंगे.” इस समाचार को सुनकर मैना के मन में बड़ा सोच हुआ. वे कहने लगीं कि नारद के उपदेस से कौन घर नष्ट नहीं हुआ.

अर्थ

“नारदजी को कहते तो परम परोपकारी हैं परंतु ये हैं घर को नष्ट करने वाले, धूर्त्त और कलहप्रिय. सप्तर्षियों ने विवाह-संबंधी बातचीत भी वैसी ही की, वे भी पूरे स्वार्थसाधक ही निकले”. इस प्रकार माता मैना, पार्वती जी को हृदय से लगाकर अनेक प्रकार की कल्पना करने लगी और अत्यन्त दु:ख माने लगी तब हिमवान ने कहा कि शिवजी की महिमा अगम्य है, उसे वेद भी नहीं जानता.

अर्थ

हिमवान के वचन सुनकर मैना का मन कुछ स्वस्थ हुआ अर्थात उसके मन में सान्त्वना हुई. उस समय जहाँ-तहाँ बाजार, चौक एवं गलियों में बरात की ही चर्चा चल रही थी. उसे सुन-सुनकर लक्ष्मीपति भगवान विष्णु, देवराज इन्द्र तथा अन्य देवता लोग कमल के समान हाथों को जोड़कर अर्थात मुखमण्डल को हाथों से ढककर बार-बार मुँह फेरकर हँसते थे.   

अर्थ

तब श्रीमहादेव जी लौकिक गति को देखते हुए उस समय बड़ा कोलाहल जान सौ करोड़ कामदेवों से भी अधिक सुन्दर और मनोहर हो गए. उनका नीलचर्म नीलाम्बर हो गया और जितने सर्प थे, वे मणिमय आभूषण हो गए. उस समय ऎसा जान पड़ता था, मानो उनके रोम-रोम पर सुन्दर रूपमय सूर्य प्रकाशित हो रहे हों.

अर्थ

शिवजी के गणों का वेष भी मंगलमय हो गया और वे अपने सौन्दर्य से कामदेव के भी मन को मोहने लगे. यह सुनकर सभी स्त्री-पुरुष हृदय में आनन्दित होकर उन्हें देखने के लिए चले. उस समय ऎसा जान पड़ता था मानो शिवजी शारदी पूर्णिमा के चंद्रमा हैं, देवता लोग नक्षत्रों के समान हैं तथा उन्हें देखने के लिए उनके चारों पुरवासी लोग चकोर समुदाय की भाँति सुशोभित हो रहे थे.

अर्थ

लग्न का समय होने पर गिरिवर हिमवान ने बरातियों को बुलावा भेजा और उन्हें मंगलमय अर्घ्य और पाँवड़े देते साथ ले चले. चलने के समय मंगलमय शकुन होते हैं और देवता लोग फूलों की वर्षा करते हैं. आनन्दपूर्ण गान और नगाड़ों का निनाद होने लगा और नगर आनन्द एवं मंगल से पूर्ण हो गया.

अर्थ

पहली ही पौरी पर समधियों का सुखदायक सम्मिलन हुआ. इधर ब्रह्माजी थे और उधर हिमवान थे. दोनों ही समान और सब प्रकार से योग्य थे. फिर मणि और सोने के सुन्दर थाल में आरती सजाकर स्त्रियाँ चलीं. उनके रूप को देखकर कामपत्नी रति और गान श्रवण कर सरस्वती भी ईर्ष्या करने लगती थीं.

अर्थ

शरीर से पुलकित और मन में आनन्दित हो वे भाग्य और प्रेम से भरी प्रेम के आवेश में मत्त गजगामिनी कामिनियाँ वर का परिछन (पूजन) करने चलीं. वर को चन्द्रमा के समान गौर और अंग-अंग में प्रकाशपूर्ण देखकर सास (मैना) सुखसागर में मग्न हो आरती उतारने लगीं.

अर्थ

सास ने सुख-सिन्धु में मगन होकर आरती उतारी और फिर निछावर करके वर की ओर देखकर मार्ग में अर्घ्य और पाँवड़े देतीं फूल से लदे हुए वर को आनन्दपूर्वक मण्डप में ले चलीं. हिमवान ने सभी देवताओं का सम्मान करके उन्हें उचित आसन दिए. उस समय जो कुछ साज-समाज था, वह सब सुन्दर मण्डप में लाकर रखा गया.

अर्थ

वर को अर्घ्य देकर मणिजटित आसन पर बैठाया गया और फिर पूजा करके मधुपर्क खिलाने की रीति पूरी की गई तथा आचमन कराया गया. तत्पश्चात ब्रह्मा ने सप्तर्षियों से कहा कि “विलंब न करो, लग्न का समय हो गया है. शीघ्र ही सब विधियाँ संपन्न करो”.

अर्थ

तब अग्नि स्थापना करके दूल्हे (श्रीशिवजी) को वस्त्र पहनाया गया और कहा गया कि “शीघ्र ही दुलहिन को लाओ, अब समय आ गया है”. उस समय सखियों और ब्याही हुई अन्य लड़कियों के साथ पार्वती जी अत्यन्त सुशोभित थीं, मानो सौन्दर्य-मूर्त्ति प्रकट होकर जगत को मोह रही हो.

अर्थ

समय के अनुकूल वस्त्र और आभूषणों की खूब शोभा हो रही है, मानो शोभा की नवीन लतिका रूपमय फलों से लदी हुई है. कहो, पार्वती जी के गुणों एवं रूप की तुलना किससे की जाय. समुद्र को किस प्रकार तालाब और कुएँ के बराबर बतलाया जाए.

अर्थ

पार्वती जी को आते देखकर देवता लोग सिर नवाते हैं और अपना जन्म कृतार्थ हुआ जानकर सुखी होते हैं. ब्राह्मण लोग आशीर्वाद दे-देकर वेद की ध्वनि कर रहे हैं और समय-समय पर गान एवं नगाड़ों की ध्वनि तथा फूलों की वर्षा हो रही है.

अर्थ

सब लोग दुलहा-दुलहिन को देखकर मन ही मन प्रफुल्लित होते हैं. शाखोच्चार के समय सब देवता और मुनि लोग हँसने लगे. फिर पर्वतराज हिमवान ने सब प्रकार की लौकिक-वैदिक विधियों को करके हाथ में जल और कुश लिया तथा कन्यादान का संकल्प किया.

अर्थ

कुलगुरु और कुलदेवताओं का पूजन किया गया. फिर उस शुभ घरी में कलश और शिला का पूजन किया गया. तत्पश्चात लावा-विधान, जिसमें कन्या का भाई कन्या की गोद में धान का लावा भरता है, और होम-विधान होकर फिर भाँवरे पड़ी. इसके अनन्तर वधू की माँग में सिन्दूर भरने की रीति का ग्रन्थिबन्धन हुआ और फिर ध्रुव का दर्शन किया गया. तब सब लोग कहने लगे कि विवाह संपन्न हो गया और हम लोगों ने जन्म लेने का फल अपनी आँखों से देख लिया.

अर्थ

इस प्रकार सभी ने अपना जन्मफल देखा. विवाह हो गया और दसों दिशाओं में आनन्द उमड़ पड़ा. गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि नगाड़ों के घोष, गान की ध्वनि और फूलों की वर्षा से वह रात्रि सुहावनी हो गई. पर्वतराज हिमवान ने वस्त्र, मणियाँ, गौ, धन, हाथी, घोड़े, दास, दासियाँ – जो कुछ भी गिरिजा को प्रिय थे, वे सभी प्रेमपूर्वक दहेज में दिए गए.

अर्थ

फिर बराती लोग तो जनवासे को चले गए और दूल्हा-दुलहिन कोहवर में गए. उस समय मैना ने उनका द्वार रोककर कौतुक किया और शिव-पार्वती ने लहकौरि की रीति करके उसे बड़ा सुख दिया.

अर्थ

जुआ खेलाते समय सब स्त्रियाँ हिमाचल पत्नी मैना को गाली गाती हैं. शिवजी अपनी ओर देखकर विशेष आनन्दित होते हैं कि हमारे तो माता है ही नहीं, गाली किसको देंगी. सखियों, सुआसिनियों और सास सभी ने सब प्रकार सुख प्राप्त किया. फिर सब मंगलों के निधान दूल्हा श्रीमहादेव जी जनवासे को चले.

अर्थ

तदनन्तर सब देवताओं को बुलाकर जेवनार हुई. धर्म और पृथ्वी को धारण करने वाले गिरिराज ने सबको बिठाया. सुआर (सूपकार) परोसने लगे और देवता लोग जीमने लगे. उस समय सुन्दर स्त्रियाँ गाली गाने लगी और मन को आनन्द में डुबोने लगी.

अर्थ

गुणी लोग शहनाईयों पर सुमंगल गान करने लगे, विष्णु भगवान और ब्रह्मा जी अपने भाई (सजातीय) समस्त देवताओं के साथ भोजन करके चले. पर्वतराज हिमवान ने प्रात:काल होते ही विदा का सामान तैयार किया और देवता लोग रथों को सजाकर नगाड़े बजाते हुए चल दिए.

अर्थ

सभी देवताओं का सम्मान करके उन्हें पहिरावनी दी और उनकी विनय एवं स्नेह से सुहावनी बड़ाई की. फिर सास ने शिवजी के चरणों को पकड़कर कहा कि “ हमारी एक विनीत प्रार्थना मानिए – पार्वती मेरे जीवन की मूल है ऎसा जानिएगा”.

अर्थ

वे एक बार मिलकर विदा कर देती हैं और फिर मिलकर पहुँचाने जाती हैं, मानो हालकी बियाई हुई गाय हुँकार भर-भरकर दौड़ती हो. पार्वती जी माता के मुख को देखकर नेत्रों से जल बहा रही हैं और सखियाँ “संसार में स्त्री का जन्म ही वृथा है” यों कहकर सोच करती हैं.

अर्थ

गिरिराज हिमवान पुत्र और परिजनों सहित पार्वती जी से मिलकर और उन्हें बहुत प्रकार समझा-बुझाकर दु:खी मन से लौटे. फिर शिवजी पार्वती जी के सहित कैलास गये और देवता लोग प्रणाम करके अपने-अपने स्थानों को चले गए.

अर्थ

पार्वती और शिवजी के विवाह के आनन्द से सारे भुवन भर गए, विधाता ने सब के सम्पूर्ण मनोरथों को पूरा कर दिया. प्रेमरूप रेशम के रेशमी तागे में कवि की बुद्धिरूपी मृगनयनी कामिनी ने यह श्रीपार्वती और शंकर के गुणगणरूपी मणियों से मंगलमय हार गूँथा है.

अर्थ

कवि की बुद्धिरूपी मृगनयनी चन्द्रवदनी स्त्री ने (उपर्युक्त) मणियों के इस मंगलहार को रचा है, इसे भक्तों की बुद्धिरूपी स्त्रियाँ तीनों लोक की शोभा का सार समझकर धारण करें. जो लोग विवाहोत्सवादि मंगल-कृत्यों के समय इसका प्रेम सहित गान करेंगे, श्रीगोस्वामी जी कहते हैं कि वे श्रीशिव और पार्वती जी के प्रसाद से मन को प्रिय लगने वाला आनन्द प्राप्त करेंगे.

पार्वती मंगल पाठ देवी पार्वती की कृपा प्राप्त करने का एक अचूक माध्यम है। इसे श्रद्धा और भक्ति भाव से करने पर जीवन में समृद्धि, शांति और खुशहाली आती है। यदि आप भी अपने जीवन में देवी पार्वती की कृपा चाहते हैं तो नियमित रूप से पार्वती मंगल पाठ का पाठ करें और अपने जीवन को मंगलमयी बनाएं।

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इस ब्लॉग पोस्ट के माध्यम से हमने पार्वती मंगल पाठ के महत्व और उसकी विधि को सरल और स्पष्ट रूप से समझाने का प्रयास किया है। आशा है कि यह जानकारी आपके लिए उपयोगी साबित होगी। यदि आपके कोई प्रश्न हैं या आप अपनी राय साझा करना चाहते हैं,