आलोचना पाठ एक महत्वपूर्ण धार्मिक विधि है जिसे जैन धर्म में आत्मशुद्धि और पापों से मुक्ति के लिए किया जाता है। यह पाठ व्यक्ति को अपने दोषों की स्वीकारोक्ति और आत्मा की शुद्धि की दिशा में मार्गदर्शन प्रदान करता है। इस ब्लॉग पोस्ट में हम आलोचना पाठ के अर्थ और उसके लाभों पर चर्चा करेंगे।
आलोचना पाठ का महत्व
आलोचना पाठ का मुख्य उद्देश्य आत्मा को शुद्ध करना और पापों की स्वीकृति करना है। इस पाठ में व्यक्ति अपने किए गए पापों को स्वीकार करता है और उनके लिए क्षमा याचना करता है। यह प्रक्रिया व्यक्ति को आत्मग्लानि से मुक्ति दिलाती है और आत्मिक उन्नति की दिशा में प्रेरित करती है।
आलोचना पाठ हिंदी में अर्थ सहित
वंदना
वंदौं पाँचों परम गुरु, चौबीसों जिनराज।
करूँ शुद्ध आलोचना, शुद्धिकरण के काज॥ १॥
अर्थ: मैं पाँचों परम गुरुओं और चौबीसों तीर्थंकरों को नमन करता हूँ। मैं अपनी आत्मा की शुद्धिकरण के लिए शुद्ध आलोचना कर रहा हूँ।
प्रभु से निवेदन
सुनिये जिन अरज हमारी, हम दोष किये अति भारी।
तिनकी अब निर्वृत्ति काजा, तुम सरन लही जिनराजा॥ २॥
अर्थ: हे जिनराज, कृपया मेरी प्रार्थना सुनिए। मैंने बहुत बड़े दोष किए हैं। अब मैं आपके शरण में आकर उनकी निवृत्ति चाहता हूँ।
निर्दयता के दोष
इक वे ते चउ इन्द्री वा, मनरहित-सहित जे जीवा।
तिनकी नहिं करुणा धारी, निरदय ह्वै घात विचारी॥ ३॥
अर्थ: एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के प्रति मैंने कोई करुणा नहीं दिखाई। मैंने निर्दयता से उनका घात किया।
पापों की स्वीकृति
समरंभ समारंभ आरंभ, मन वच तन कीने प्रारंभ।
कृत कारित मोदन करिकै, क्रोधादि चतुष्टय धरिकै॥ ४॥
अर्थ: मैंने समारंभ, समारंभ और आरंभ के माध्यम से मन, वचन और शरीर से पाप किए। मैंने कृत, कारित और अनुमोदन से पाप किए और क्रोध, मान, माया और लोभ को धारण किया।
अघ की स्वीकृति
शत आठ जु इमि भेदन तैं, अघ कीने परिछेदन तैं।
तिनकी कहुँ कोलों कहानी, तुम जानत केवलज्ञानी॥ ५॥
अर्थ: मैंने सौ और आठ प्रकार के पाप किए हैं। उन पापों की कहानियाँ मैं कैसे बता सकता हूँ, केवलज्ञानी (सब कुछ जानने वाले) आप ही उन सब को जानते हैं।
विपरीत आचरण
विपरीत एकांत विनय के, संशय अज्ञान कुनय के।
वश होय घोर अघ कीने, वचतैं नहिं जाय कहीने॥ ६॥
अर्थ: मैंने विपरीत एकांत विनय, संशय, अज्ञान और कुटिल नय के वश होकर घोर पाप किए हैं, जिन्हें मैं कह नहीं सकता।
मिथ्यात्व
कुगुरुन की सेवा कीनी, केवल अदयाकरि भीनी।
या विधि मिथ्यात भ्ऱमायो, चहुंगति मधि दोष उपायो॥ ७॥
अर्थ: मैंने कुगुरु की सेवा की और केवल अदयाकारी हुआ। इस प्रकार मिथ्या मत से भ्रमित होकर मैंने चारों गतियों में दोषों का संचय किया।
हिंसा और अन्य पाप
हिंसा पुनि झूठ जु चोरी, परवनिता सों दृगजोरी।
आरंभ परिग्रह भीनो, पन पाप जु या विधि कीनो॥ ८॥
अर्थ: मैंने हिंसा, झूठ, चोरी और परस्त्री के प्रति दृष्टि दोष किया। आरंभ और परिग्रह में लिप्त होकर मैंने पाप किए।
इन्द्रियों के दोष
सपरस रसना घ्राननको, चखु कान विषय-सेवनको।
बहु करम किये मनमाने, कछु न्याय अन्याय न जाने॥ ९॥
अर्थ: स्पर्श, रसना, घ्राण, नेत्र और कान की इन्द्रियों के माध्यम से विषय सेवन किए। मैंने मनमाने कर्म किए और न्याय-अन्याय की परवाह नहीं की।
अवगुणों की स्वीकृति
फल पंच उदम्बर खाये, मधु मांस मद्य चित चाहे।
नहिं अष्ट मूलगुण धारे, सेये कुविसन दुखकारे॥ १०॥
अर्थ: मैंने पाँचों प्रकार के उदंबर फल खाए, मधु, मांस और मद्य की चाह रखी। मैंने अष्ट मूलगुणों का पालन नहीं किया और कुवासनाओं से दुख पाया।
अभक्ष्य पदार्थ
दुइबीस अभख जिन गाये, सो भी निशदिन भुंजाये।
कछु भेदाभेद न पायो, ज्यों-त्यों करि उदर भरायो॥ ११॥
अर्थ: मैंने द्विविंशति प्रकार के अभक्ष्य पदार्थ खाए। भेदाभेद का विचार नहीं किया और जैसे-तैसे उदर भराया।
पापों की विवेचना
अनंतानु जु बंधी जानो, प्रत्याख्यान अप्रत्याख्यानो।
संज्वलन चौकड़ी गुनिये, सब भेद जु षोडश गुनिये॥ १२॥
अर्थ: अनंतानुबन्धी, प्रत्याख्यान, अप्रत्याख्यान, संज्वलन चौकड़ी आदि षोडश प्रकार के पापों का विचार किया और सबको समझा।
विपरीत विचार
परिहास अरति रति शोग, भय ग्लानि त्रिवेद संयोग।
पनबीस जु भेद भये इम, इनके वश पाप किये हम॥ १३॥
अर्थ: परिहास, अरति, रति, शोक, भय, ग्लानि आदि त्रिवेद संयोगों के २२ प्रकारों के वश होकर मैंने पाप किए हैं।
निद्रा दोष
निद्रावश शयन कराई, सुपने मधि दोष लगाई।
फिर जागि विषय-वन धायो, नानाविध विष-फल खायो॥१४॥
अर्थ: निद्रावश शयन करते हुए, स्वप्न में भी दोष लगाए। जागने पर विषय-वन की ओर दौड़ा और नाना प्रकार के विष-फल खाए।
आहार-विहार दोष
आहार विहार निहारा, इनमें नहिं जतन विचारा।
बिन देखी धरी उठाई, बिन शोधी वस्तु जु खाई॥ १५॥
अर्थ: आहार-विहार में ध्यान नहीं दिया। बिना देखे और बिना शोधे वस्तुएँ खाईं।
प्रमाद
तब ही परमाद सतायो, बहुविधि विकलप उपजायो।
कछु सुधि बुधि नाहिं रही है, मिथ्यामति छाय गयी है॥ १६॥
अर्थ: प्रमाद ने मुझे सताया और मैंने अनेक प्रकार के विकल्प बनाए। मेरी सुध-बुध नहीं रही और मिथ्या मति छा गई।
मर्यादा का पालन न करना
मरजादा तुम ढिंग लीनी, ताहू में दोस जु कीनी।
भिनभिन अब कैसे कहिये, तुम ज्ञानविषैं सब पइये॥ १७॥
अर्थ: मैंने तुम्हारी मर्यादा ली, परंतु उसमें भी दोष किए। अब मैं कैसे-कैसे भिन्न दोष कहूँ, तुम सर्वज्ञ हो, सब जानते हो।
त्रसजीवों की हानि
हा हा! मैं दुठ अपराधी, त्रसजीवन राशि विराधी।
थावर की जतन न कीनी, उर में करुना नहिं लीनी॥ १८॥
अर्थ: हा हा! मैं दुर्ध अपराधी हूँ, त्रसजीवों का विरोधी हूँ। मैंने स्थावर जीवों का भी जतन नहीं किया और हृदय में करुणा नहीं ली।
पृथ्वी का दोहन
पृथिवी बहु खोद कराई, महलादिक जागां चिनाई।
पुनि बिन गाल्यो जल ढोल्यो, पंखातैं पवन बिलोल्यो॥ १९॥
अर्थ: मैंने पृथ्वी को बहुत खोदवाया, महलों आदि का निर्माण करवाया। बिना गाले जल ढोया और पंखों से पवन को बिलोल्या।
हरितकाय की हानि
हा हा! मैं अदयाचारी, बहु हरितकाय जु विदारी।
तामधि जीवन के खंदा, हम खाये धरि आनंदा॥ २०॥
अर्थ: हा हा! मैं अदयाचारी हूँ, मैंने बहुत हरितकायों को विदारित किया। उन जीवन के खंडों को खाकर आनंदित हुआ।
अग्नि दोष
हा हा! परमाद बसाई, बिन देखे अगनि जलाई।
तामधि जीव जु आये, ते हू परलोक सिधाये॥ २१॥
अर्थ: हा हा! प्रमादवश, बिना देखे अग्नि जलाई। तामधि जीव आए, वे भी परलोक सिधार गए।
पिसाई दोष
बींध्यो अन राति पिसायो, ईंधन बिन-सोधि जलायो।
झाडू ले जागां बुहारी, चींटी आदिक जीव बिदारी॥ २२॥
अर्थ: बिना देखे अनाज पिसाया, बिना शोधे ईंधन जलाया। झाडू लेकर जगह बुहारी, जिससे चींटी आदि जीव विदारित हुए।
जल दोष
जल छानि जिवानी कीनी, सो हू पुनि-डारि जु दीनी।
नहिं जल-थानक पहुँचाई, किरिया बिन पाप उपाई॥ २३॥
अर्थ: जल छानकर जीवानी की, पर उसे पुनः डाल दिया। बिना जल-थानक पहुँचाए, क्रिया बिना पाप उत्पन्न किया।
नदियों का प्रदूषण
जलमल मोरिन गिरवायो, कृमिकुल बहुघात करायो।
नदियन बिच चीर धुवाये, कोसन के जीव मराये॥ २४॥
अर्थ: जलमल को मोरिन में गिरवाया, कृमिकुल का बहुघात किया। नदियों में कपड़े धुलवाए, जिससे कोसों के जीव मारे गए।
अन्न दोष
अन्नादिक शोध कराई, तामें जु जीव निसराई।
तिनका नहिं जतन कराया, गलियारैं धूप डराया॥ २५॥
अर्थ: अन्नादिक का शोध कराया, जिसमें जीव निकले। उनका जतन नहीं कराया और गलियारों में धूप डराया।
आरंभ दोष
पुनि द्रव्य कमावन काजे, बहु आरंभ हिंसा साजे।
किये तिसनावश अघ भारी, करुना नहिं रंच विचारी॥ २६॥
अर्थ: पुनः द्रव्य कमाने के लिए बहु आरंभ हिंसा साजे। तृष्णावश घोर पाप किए, करुणा का रंच भी विचार नहीं किया।
पापों की स्वीकृति
इत्यादिक पाप अनंता, हम कीने श्री भगवंता।
संतति चिरकाल उपाई, वानी तैं कहिय न जाई॥ २७॥
अर्थ: हे श्री भगवन्! ऐसे अनंत पाप मैंने किए हैं। उनकी संतति चिरकाल तक रहेगी, वाणी से कहे नहीं जा सकते।
पापों का उदय
ताको जु उदय अब आयो, नानाविध मोहि सतायो।
फल भुँजत जिय दुख पावै, वचतैं कैसें करि गावै॥ २८॥
अर्थ: अब उन पापों का उदय आया है, जो नानाविध प्रकार से मुझे सताते हैं। फल भोगते हुए जीव दुख पाता है, वचनों में कैसे कहा जाए?
प्रभु से निवेदन
तुम जानत केवलज्ञानी, दुख दूर करो शिवथानी।
हम तो तुम शरण लही है जिन तारन विरद सही है॥ २९॥
अर्थ: हे केवलज्ञानी प्रभु! आप सब जानते हैं, दुख दूर करो हे शिवथानी। मैंने आपकी शरण ली है, आप तारन का सही कार्य करें।
त्रिलोकपति से प्रार्थना
इक गांवपती जो होवे, सो भी दुखिया दुख खोवै।
तुम तीन भुवन के स्वामी, दुख मेटहु अन्तरजामी॥ ३०॥
अर्थ: जो एक गाँव का पति होता है, वह भी दुखियों का दुख दूर करता है। आप तो तीनों लोकों के स्वामी हैं, दुख दूर करो हे अन्तरजामी।
द्रौपदी और सीता की सहायता
द्रोपदि को चीर बढ़ायो, सीता प्रति कमल रचायो।
अंजन से किये अकामी, दुख मेटो अन्तरजामी॥ ३१॥
अर्थ: आपने द्रौपदी का चीर बढ़ाया और सीता के प्रति कमल रचाया। अंजन से अकामी किए, दुख मेटो हे अन्तरजामी।
क्षमा याचना
मेरे अवगुन न चितारो, प्रभु अपनो विरद सम्हारो।
सब दोषरहित करि स्वामी, दुख मेटहु अन्तरजामी॥ ३२॥
अर्थ: मेरे अवगुण न चितारो, प्रभु अपने विरद को सम्हारो। सब दोषरहित कर दो, हे स्वामी, दुख मेटो हे अन्तरजामी।
आत्मा की मुक्ति
इंद्रादिक पद नहिं चाहूँ, विषयनि में नाहिं लुभाऊँ।
रागादिक दोष हरीजे, परमातम निजपद दीजे॥ ३३॥
अर्थ: मैं इंद्र आदि पद नहीं चाहता, विषयों में नहीं लुभाता। राग आदि दोष हर लो और परमात्मा निज पद दो।
दोहा
दोष रहित जिनदेवजी, निजपद दीज्यो मोय।
सब जीवन के सुख बढ़ै, आनंद-मंगल होय॥ ३४॥
अर्थ: हे जिनदेवजी! दोषरहित कर दो और निज पद दो। सब जीवन के सुख बढ़ें और आनंद-मंगल हो।
अंतिम प्रार्थना
अनुभव माणिक पारखी, जौहरी आप जिनन्द।
ये ही वर मोहि दीजिये, चरन-शरन आनन्द॥ ३५॥
अर्थ: हे जिनेंद्र! आप अनुभव रूपी माणिक के पारखी हैं। मुझे यही वर दीजिए कि मैं आपके चरणों की शरण में आनंदित रहूँ।